लकीरें

निगाहें चेहेरेमें बैठी रहेती हैं
जानती हैं उफक पर पुराना हैं चाँद
रास्तों को बिछाये सदिया गुजर गयी
क्यों लकिरोंको छेड़कर कोई मुस्कुराया आज

तनसे तनहाईयोकि चादर लपेटे वक्त था
लेहेरोंने छुई रेत, किनारा फिरभी सख्त था
परछाई पेहेनके निकलता हूँ अंधेरोंमें मस्त मैं
यूँ तिनका जलके दिनमें घुला निखर गया आज
क्यों लकिरोंको छेड़कर...

सजाये रोज ख्वाब और घरसे दूर रखता गया
कैसे मिले अपना कोई शहरसे दूर चलता रहा
होठोमें लफ्ज चुभते रहे खुद एक पैगाम बन गया
कोई मुद्दतों पढ़कर मुझे, पहेली सुलझा गया आज
क्यों लकिरोंको छेड़कर...

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