अख़बार

अख़बार के हर एक पन्ने पर मुद्दा कोई संजिदासा
पढ़के खबर हर एक मगर सियाही के जैसे बिखरसा
कुछ मर गए, मारे गए, कुछ पैसों के फेरफारसा
सच भी कभी छपता मगर दो लफ्जोंमें लपेटासा

बाजार में सजता गया हर जेब का रंग होलिसा
खेतों में और मरते रहे, न उगले जमीं कुछ सोनेसा
सियासत ने भी जब मूह खोला, लगता उन्हें साजिशसा
तपता रहेगा दिन मगर लगता रहा बारिशसा

न मनो इसे पर मनो भी हकीक़तसे मैं अन्जानासा
किसीको अगर लगता नहीं कर सकता हैं ये अपिलसा
खेलोगे तुम हारूँगा मैं कुछ बन गया दस्तुरसा
संजीदगीसे कहता हूँ, तू भी बन गया अखबारसा

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