बगावत
बगावत करती है सांसे, आहें तेरे नामसे भरकर
और फिर भी जिन्दा हूँ, क्या मैं भी बागी हूँ ?
सिमट जाते हैं दिनमें निग़ाहों के दायरे
भीड़ के हर शरीरपर एक ही चेहरा देखता हूँ
सिर्फ तुम्हे जानता हूँ, क्या मैं भी बागी हूँ...?
रोज़ एक नया दिनसा लाऊ कहाँ से मैं
बीते लम्होंसे नए दिन का आगाज करता हूँ
सिर्फ तुम्हे जीता हूँ, क्या मैं भी लम्हा हूँ...?
और फिर भी जिन्दा हूँ, क्या मैं भी बागी हूँ ?
सिमट जाते हैं दिनमें निग़ाहों के दायरे
भीड़ के हर शरीरपर एक ही चेहरा देखता हूँ
सिर्फ तुम्हे जानता हूँ, क्या मैं भी बागी हूँ...?
रोज़ एक नया दिनसा लाऊ कहाँ से मैं
बीते लम्होंसे नए दिन का आगाज करता हूँ
सिर्फ तुम्हे जीता हूँ, क्या मैं भी लम्हा हूँ...?
Nice poem!
ReplyDeleteThanks Vijay...
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